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अरहर दाल में एक साल में 43% गिरावट: आत्मनिर्भरता की राह में सबसे बड़ा सवाल — क्या किसानों को मिलेगा उनकी उपज का सही दाम?

देश को दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के लिए केंद्र सरकार बड़े-बड़े दावे कर रही है, लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे बिल्कुल उलट नज़र आ रही है। अरहर (तुअर) दाल, जो कभी 11,000 रुपये प्रति क्विंटल के पार बिक रही थी, अब कई प्रमुख मंडियों में 6,400 रुपये/क्विंटल से भी नीचे पहुंच गई है। यानि एक साल में........

Business 14 Jul  Kisaan Tak
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देश को दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के लिए केंद्र सरकार बड़े-बड़े दावे कर रही है, लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे बिल्कुल उलट नज़र आ रही है। अरहर (तुअर) दाल, जो कभी 11,000 रुपये प्रति क्विंटल के पार बिक रही थी, अब कई प्रमुख मंडियों में 6,400 रुपये/क्विंटल से भी नीचे पहुंच गई है। यानि एक साल में लगभग 43% की गिरावट — यह न सिर्फ एक आर्थिक आंकड़ा है, बल्कि लाखों किसानों की आय में आई तेज़ गिरावट और उनकी मेहनत की अनदेखी का संकेत भी है।

भाव टूटे, किसानों की उम्मीदें भी

सरकारी एगमार्कनेट पोर्टल के आंकड़े बताते हैं कि 27 जून 2024 को अरहर का थोक भाव ₹11,213/क्विंटल था, जो ठीक एक साल बाद 27 जून 2025 को घटकर ₹6,422/क्विंटल रह गया। देश के बड़े उत्पादक राज्यों — महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश की मंडियों में 12 जुलाई को भी भाव MSP से नीचे दर्ज किए गए। केवल तेलंगाना की आलेर मंडी में ही यह मूल्य ₹7,550/क्विंटल रहा, जो मौजूदा MSP के बराबर था।

MSP सिर्फ कागज़ों में?

वर्तमान खरीफ सीजन 2024-25 के लिए केंद्र सरकार ने अरहर दाल का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) ₹7,550/क्विंटल तय किया था, जिसे आगामी खरीफ 2025-26 के लिए बढ़ाकर ₹8,000/क्विंटल कर दिया गया है। लेकिन मंडी स्तर पर किसान अब भी इस कीमत से 1,000 से 1,500 रुपये कम पर अपनी उपज बेचने को मजबूर हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या MSP का कोई व्यावहारिक लाभ किसानों तक पहुंच भी रहा है, या यह सिर्फ सरकारी घोषणाओं तक सीमित है?

सरकारी खरीद में भी अरहर पीछे

Price Support Scheme (PSS) के तहत सरकार दालों की खरीद करती है, लेकिन यह खरीद बहुत सीमित दायरे में होती है। कुल उत्पादन के मुकाबले सरकार बहुत कम मात्रा में दाल खरीद पाती है, और उस पर भी नमी, क्वालिटी, कटौती जैसे बहाने लगाकर किसानों को पूरा MSP नहीं मिल पाता। अरहर की बात करें तो यह दाल खरीद के मामले में चना और मूंग जैसे अन्य दलहन के मुकाबले और भी ज़्यादा उपेक्षित रही है।

आयात नीति: घरेलू उत्पादकों की बड़ी चुनौती

भारत हर साल अरहर सहित कई दलहन विदेशों से आयात करता है। इस आयात पर या तो कम शुल्‍क लगता है या कई बार पूरी तरह शुल्‍कमुक्त भी कर दिया जाता है, ताकि घरेलू बाजार में दाल की खुदरा कीमतें नियंत्रित रह सकें। लेकिन इसका सीधा नुकसान घरेलू किसानों को होता है, जिनकी उपज की कीमत आयातित सस्ती दालों के चलते गिर जाती है। उदाहरण के तौर पर, पीली मटर जैसी सस्ती दालों का खुला आयात, अरहर की घरेलू मांग को कमजोर करता है और मूल्य को दबा देता है।

बुवाई पिछड़ी, उत्पादन घटने का डर

इस समय देश में खरीफ की बुवाई ज़ोरों पर है, लेकिन कृषि मंत्रालय की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, अरहर की बुवाई पिछले साल के मुकाबले अब भी काफी पीछे है। इसके पीछे प्रमुख कारण कम भाव, अनिश्चित आय और खरीदारों की अनुपलब्धता हैं। यदि यह ट्रेंड अगले कुछ हफ्तों तक जारी रहता है, तो इस साल अरहर का कुल उत्पादन भी प्रभावित हो सकता है। और तब वही सरकार फिर से आयात की नीति अपनाएगी — जो आत्मनिर्भरता के दावे पर प्रत्यक्ष प्रश्नचिन्ह बन जाएगा।

तो क्या आत्मनिर्भरता सिर्फ घोषणा है?

सरकार ने हाल ही में "राष्ट्रीय आत्मनिर्भर दलहन मिशन" जैसे कई कार्यक्रम शुरू किए हैं। लेकिन यदि किसानों को उनकी लागत का भी उचित मूल्य नहीं मिलेगा, और आयात नीति घरेलू बाजार को नुकसान पहुंचाती रहेगी — तो यह मिशन सिर्फ नारों और योजनाओं तक सीमित रह जाएगा। सच्ची आत्मनिर्भरता तब ही आएगी जब:

  • किसानों को वास्तविक MSP पर सरकारी खरीद का लाभ मिले,

  • आयात नीति संतुलित हो,

  • बाजार में पारदर्शिता लाई जाए, और

  • किसानों को समय पर भुगतान और समर्थन मिले।

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